रविवार, 10 मई 2020

मेरी कविताएं

          




।।माइलू।।

इंसान तो वो है 
जो किसी की कमजोरी नहीं 
बल्कि किसी की ताकत देखे,
किसी की जाति, किसी का धर्म
किसी का चेहरा नहीं 
बल्कि किसी का प्रेम देखे,

आपने शायद 
माइलू की कमजोरी देखी होगी,
मैंने उसकी ताकत देखी है और 
उसकी ताकत है 
उसका निर्मल "चरित्र"

जहां आजकल अच्छा चरित्र 
 किताबों में ही मिलता है वहीँ
जब माइलू को देखा तो लगा
 ये मेरा भ्रम है,
किताबों के साथ - साथ 
हजारों में एक ही सही 
इंसानों में भी मिलता है
जिसका चरित्र किताबों से भी
निर्मल होता है,

ऐसे निर्मल चरित्र को ही कहते हैं-
"माइलू"
माइलू केवल एक नाम नहीं है
बल्कि  एहसास है
 जो मेरे भीतर है 
औऱ ये मेरे भीतर बढ़ता ही जा रहा है

ये एहसास ही मुझे एक दिन 
माइलू  का हमसफर बना देगा...
द्वारा - दिलीप मिश्रा












मैं अकेला कहाँ हूँ?
मेरा मन है,
मस्तिष्क है,
हृदय है,
आत्मा है
और इन सबके बीच
मैं हूँ,
मैं अकेला कहाँ हूं?

        मेरा मन है
 जो ऊंची उड़ान भरता है,
जहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं 
वहां भी उपस्थिति दर्ज करता है
लेकिन मस्तिष्क से डरता है।

  मेरा मस्तिष्क है
 जो मन को नियंत्रित करता है,
लेकिन असफल हो जाता है,
फिर झगड़ा शुरू हो जाता है,
मन और मस्तिष्क का।

 मेरा हृदय है
जो मन को,मस्तिष्क को समझाता है 
लेकिन वो कोमल स्वाभव
खुद ही दोनों के चंगुल में फस जाता है।

अंततः मेरी आत्मा को तकलीफ होती है,
मन से भी , मस्तिष्क से भी, हृदय से भी 
और कराहते हुए चिल्ला उठती है
"आत्मा"
 सबको झकझोड़ देती है 
जिससे मुझे तकलीफ होती है फिर...

फिर क्या ?
मैं, मन को,मस्तिष्क को,हृदय को समझाता हूँ 
और कहता हूँ मुझसे तुम हो तुमसे मैं हूँ,
 फिर भिन्न क्यों स्वर लय हो?
संतुलन और समझदारी से चलो 
तभी तो जमाने से कह पाऊंगा -

मैं अकेला कहाँ हूँ?
मेरा मन है,
मस्तिष्क है,
हृदय है,
आत्मा है
और इन सबके बीच
मैं हूँ,
मैं अकेला कहाँ हूं?

इतना कहते ही मन, मस्तिष्क ,हृदय ,आत्मा तालियां बजाना शुरू कर देते हैं और एक दूसरे से गले मिलके आंखों को  खुशी के आंसुओं से भरकर उड़ जाते है और अपने सही रास्ते से जुड़ जाते हैं।।
16/07/2020
lekhaksandesh@gmail.com
     दिलीप मिश्रा मातपुर।




तुम खुशी हो
मैं गम हूँ,
तुम ज्यादा हो
मैं कम हूँ।

               अम्मा तुम कितनी उदार हो  




अम्मा तुम इतना क्यों सहेज कर सब चीजें रखती हो ? कभी अमरुद के पेड़ में फल लगते हैं तो तुम उन्हें तोड़ती नहीं हो,अगर कोई पूंछता है कि ये किसके लिए सहेज कर रखी हो तो तुम्हारी आँखों में नीर की झिरन सी होने लगती है और फफकते हुए लड़खड़ाते स्वरों में कहती हो मैं अपने बहू -बेटों के लिए सहेज कर रखी हूँ ...वो आएंगे शहर से गाँव...इसी  तरह अम्मा चने को पीसकर बेसन बनाती है,दूध से दही और दही से छांछ बनाती है,क्योंकि उसके बड़े बेटे को कढ़ी बहुत पसंद है,अषाढ़  के महीने में आँगन में मक्का लगाती है क्योंकि उसके मझिले बेटे को मक्का बहुत पसंद है,दिन में चावल -दाल बनाती है और चूल्हे की धीमी आंच में रात तक के लिए रख देती है सोचती है कहीं मेरा छोटा बेटा न आ जाये क्योंकि उसके छोटे बेटे को चावल-दाल बहुत पसंद है...
 
घर में दो -तीन गुदड़ियाँ थीं अम्मा ने उसके बदले में घी रखने के लिए बरनी लेली ,स्वयं दूध पीती नहीं उसका घी बनती है बहू - बेटों के लिए...अम्मा तुम बहुत कमजोर हो गई हो कुछ खाया -पिया करो थक जाती हो फिर भी घर आंगन को पोतती  रहती हो ,झाड़ू लगाती रहती हो ,वर्तन साफ करती रहती हो ,हाँथ में चार्म रोग है फिर  भी गोबर पथ कर कंडे बनाती रहती हो और दवा करवाने का जिक्र भी नहीं करती हो...दिन भर की भाग -दौड़  में थक कर रात में सोने जाती हो ,थोड़ी संतुष्ट सी लगती हो लेकिन नीद  नहीं आती थोड़ी झपकी लगी भी तो खपरैल घर में चूहे -बिल्ली आवाज करते हैं जैसे ही आवाज सुनती हो तो उठ बैठती हो और सोचती हो कहीं मेरे बेटे दरवाजा तो नहीं खटखटा रहे हैं ...इतनी आश लगा के क्यों बैठी हो अम्मा ? आज-कल के बहु -बेटों को तो पता ही नहीं की उनके लिए तुम जन्म से ही सहेजती चली आ रही हो...अम्मा तुझे तेरे बहू -बेटे भूल गए क्योंकि वे गाँव के कीचड़ से शहर की साफ -सुथरी गलियों में रहने लगे हैं... तू कहाँ देहाती अम्मा ,वो तो शहरी कॉलेजी कहलाते हैं..अम्मा तुम अमरुद ,बेसन ,मक्का ,और घी सहेज कर रखी हो ,आज-कल के बहू -बेटों को ये पसंद नहीं है ,आज-कल के बहू- बेटों को तो सिगरेट,शराब ,धोखा,झूंठ और बदचलनी बहुत पसंद है ये इनका रोज नास्ता करते हैं, अंग्रजी में ये लोग इसे ब्रेकफास्ट कहते हैं ...अम्मा तू ये सब सहेजना छोड़ दे और राम नाम का सुमिरन कर इस मोह - माया में मत पड़ आज तू ये सब जिसके लिए सहेज रही है वो तेरे जाने के बाद तेरा सारा सामान गन्दी नालियों में फेंक देंगे सिवाय सोने की मोहरों के और कहेंगे यहाँ गंदगी फैला कर चली गई ...ये सब जानते हुए भी तेरी आत्मा बहू - बेटों से मिलने   के लिए ललकती है...अम्मा ये तेरी उदारता नहीं तो और क्या है ? अम्मा मैं व्यग्र असंख्य वार तुझे नमन करता हूँ।






निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ


दादा धूनी वाले की धरा में काम करता हूँ
सिंगाजी के विचारों को सबके नाम करता हूँ
ओमकार जी को ह्रदय से स्मरण करता हूँ ,
 
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |
 

नर्मदा की धारा  बहती कहती आज आप से 
बच सको तो बचलो ढोंग और घोर पाप से
 
ढोंग पाप से बचा रहूं  भजन करता हूँ ,
 
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |


माखन दा की कर्म भूमि है निमाड़ ये अपना
दादा रामनारायण का यहाँ सच हुआ  सपना
सपूतों के चरण धूल का चन्दन करता हूँ ,
 
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |


निमाड़ के किशोर दा सुर - ताल दे गए
दुनियां के लिए गानों की मिसाल दे गए
उनके गानों से मन को मैं मगन करता हूँ ,
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |


निमाड़ का गणगौर अपना स्वाभिमान है
 
सभ्यता संस्कारों की पहचान है
ये संस्कृति बनी रहे जतन करता हूँ ,
 
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |



दुनियां में कोई दूसरा हनुवंतिया नहीं है
पुनासा डेम भी नहीं है कालमुखी भी नहीं है
कपास मिर्ची मक्का खूब हो प्रयत्न करता हूँ ,
   
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |


निमाड़ का एक ग्राम नाम कालमुखी है 
जनता  यहाँ की दूसरों के सुख से सुखी है 
ये सुख सदा बना रहे हवन करता हूँ ,
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |


दुनियां के लिए मातपुर छोटा सा गाँव है 
मेरे लिए तो मातपुर माता की छाँव  है 
इस छाँव  में ज्ञान का सृजन  करता हूँ ,
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |


मतभेद होगा लेकिन मन भेद नहीं होगा
इस प्रेम के गढ़े में कोई छेंद  नहीं होगा
नित प्रेम निकले ह्रदय में मंथन करता हूँ ,
 
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |

लालच में कभी झूंठ का तुम साथ न देना 
  है सत्य अकेला तो उसे लूट न लेना 
संकल्प लेलो सत्य का अनुशरण करता हूँ ,
  निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |


सौभाग्य है मेरा की बना राष्ट्र निर्माता 
सब पर कृपा करेगा वो भाग्य विधाता 
मद लोभ काम क्रोध का दमन करता हूँ ,
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ


इंसान के हृदय में भगवान् बसता है 
लेना है जिसे लेलो ये बहुत सस्ता है 
हर ह्रदय को ह्रदय से वंदन करता हूँ
निमाड़ की धरती तुझे नमन करता हूँ |





जग की तकलीफ़ सुनो

                       जग की तकलीफ़ 
                        हे गणेश देवा,
सच को लात पड़े
झूंठ खाये मेवा।  

बिल्ली को दूध मिले
अम्मा को पानी ,
दादा को ताने मारे
घर की जेठानी,
ऐसी तो पीढ़िया हैं
कौन करे सेवा?
सच को लात पड़े
झूंठ खाये मेवा। 

फैशन की दुनियां में
जूझते लोग हैं,
लालच के लड्डुओं से
लगते यहाँ भोग हैं,
स्वार्थ भरी दुनियां है
देख मेरे देवा,
सच को लात पड़े
झूंठ खाये मेवा। 

बेटों की चाहत में
बेटियों को मारते,
काम करें बेटियां
बेटों को सवारते,
ऐसी तो ममता है
कलयुग की देवा,
सच को लात पड़े
झूंठ खाये मेवा। 

मिट रही है सभ्यता
रो रही है भद्रता,
बढ़ रही समाज में
हीनता अभद्रता,
ऐसी तो करणी है
कलयुग की देवा,
सच को लात पड़े
झूंठ खाये मेवा। 

जाति भेद छीन रहा
प्रेम के शृंगार को,
धर्म यहाँ ताक बैठा
तेरे अवतार को,
अब तो अवतार लो
रुक न जाये रेवा,
काम क्रोध मद लोभ
बैर हरलो देवा,
यही मेरी कामना है
सत्य की हो सेवा,
सोने वाले जाग जाओ
कह रहे हैं देवा। 







                      प्रिय लगती है  
 बचपन से ही प्रिय लगती है
वृक्षों की छाया हमको 
मोहित मन को कर लेती है 
मधुवन की काया हमको /

हरे-भरे ये वृक्ष खड़े  
 आपस में ये न कभी लड़े 
पवन चले चुपके-चुपके 
पत्ते ,पत्तों से प्रेम करें /

कहीं देवदार ,वरगद विशाल 
कहीं वृक्षों का है घना जाल 
कहीं कामलता ,सुन्दर सी घटा 
कहीं फूलों की है सजी थाल /

ओ मनुष्य !किसकी तलाश 
क्यों परेशान ?क्यों है उदास ?
शीतल,जल,dal,फल इनसे 
वृक्षों में अब जीवन तलाश /

जरा देख पलाश और अमलताश 
इनके फूलों से सजी रात 
वन -उपवन से धरती महके
 यह वृक्षों की स्थिर बरात /

वृक्ष ,नदी,सर ,झरनों से 
मानव का मेल जरुरी है 
इनकी रक्षा ,अपनी रक्षा 
यह मत समझो मजबूरी है /

धन्यवाद इस वन-उपवन में 
जिसने भी लाया हमको 
  बचपन से ही प्रिय लगती है 
वृक्षों की छाया हमको /






नज़र अंदाज़ क्यों करते हो?


नज़र अंदाज़ क्यों करते हो?
शरीर कमजोर ,चेहरा बेकार
 
तो क्या मैं नाक़ाबिल हूं ?

याद रखो प्यार का कोई शरीर
 
कोई चेहरा नहीं होता,
 
प्यार तो अनुभूति है
जिसे तुम आत्मसात नहीं कर सके...

जब तक शरीर ठीक था
चेहरा सुंदर था
क्या प्यार तभी तक?
यह प्यार नहीं तृष्णा है
तुम्हारे शरीर की
जो मेरे शरीर तक सीमित थी...

शरीर की भूख को प्यार शांत कर सकता है
लेकिन प्यार की भूख को शरीर नहीं,
तुम्हें तलाश शरीर की है
जो प्यार नहीं हो सकता ,
शरीर तो बाजार में भी बिकता है,
प्यार तो पवित्र होता है और
पवित्रता का मोल-भाव नहीं होता...

 
तुम ऐसा कब तक करोगे ?
 
जब तक तुम्हारा शरीर है,
शरीर मिट्टी है और मिट्टी को दुनिया रौंदती है,
केवल पवित्र मिट्टी का ही तिलक
 
माथे पर लगाया जाता है
जो केवल प्रयाग में मिलती है...


 





जबान- ए - हिंदी कहे

जबान- ए - हिंदी कहे
 
भारत की शान हूं मैं,
 
विहंग वृक्ष बात कर
 
इतनी आसान हूं मैं।

    
सिंधु,हिंदु,हिंदी
 
संस्कृत ने मुझको लाया,
 
भारत की जनता धन्य है
  
भाषा में राज पाया।

  
अहं तो है नहीं मुझे
जन मुग्ध  मुझ पर गिरधर,
  
उत्थान या पतन हो
 
अनुज ये तुझ पर निर्भर।

धरा, गगन,पवन सुने
मेरी व्यथित कहानी,
सूखा गला हूँ व्याकुल
अंग्रेजी को मिले पानी।

  
क्षणभर जरा सोचो
सरिता बनके सोम घोलती हूं मैं,       
 
मौखिक, लिखित, कहानी
कविता बनके मौन बोलती हूं मैं।

 
इतिहास के पन्ने खोलो तुम
  
वीरों ने दी कुर्बानी थी,
रुधिर से अपने अमर शहीदों ने
 
हिंदी में लिखी कहानी थी।

  
जो पतन हमारा अंग्रेजों ने किया,
वीरों ने किया उत्थान जतन होकर बलिदान,
        
हो प्रभु प्रचलन मेरा
    
सदा रहे यह तुमको ध्यान।

अंतिम क्षण है सोच लो
 
बिछड़ ना जाऊं कहीं,
हिंदी हूं कोई गैर नहीं
 
हिंद की पहचान हूं मैं।

जबान- ए - हिंदी कहे
 
भारत की शान हूं मैं।






बात होती है
होती रहे
,
आत्मा रोती है
रोती रहे,
तुम्हारी बातों से
मजबूर हो गई,
इसीलिए
मैं तुमसे दूर हो गई।

तो ठीक है,

बात होती है
होती रहे,
आत्मा रोती है
रोती रहे,
मैं भी तुम्हारी इसी बात से
मजबूर हो गया,
न चाहते हुए भी
मैं तुमसे दूर हो गया...
 

जो बात नहीं होनी थी,
     
वो बात हो गई है...
अब शाम रात हो गई है,
   
जो बात नहीं होनी थी,
     
वो बात हो गई है...

अरे भाई कैसे?
वो ऐसे की

जैसे-

सुबह जन्म की तरह प्रतीत होती है,
सुबह का सूरज भी कितना प्यारा होता है,

लेकिन धरती का अपनी धुरी पर घूमना,
और
क्रमशः सूरज का ताप् बढ़ना,

लेकिन ताप् एक सीमा तक ही बढ़ता है,
क्योंकि उसे मालूम है कि
उसे घटना भी है,

और दिन भर के चक्कर के बाद,
आखिर सूरज का ताप कम हो ही जाता है,
लोग कहते हैं सूरज डूब गया,
शाम हो गई, रात हो गई,
जो रोज होती है, वही बात हो गई...

लेकिन सच कहूँ सूरज कभी नहीं डूबता,
वो तो धरती है जिसके चक्कर में
सूरज डूबता हुआ प्रतीत होता है,

लेकिन याद रखिये,प्रतीत होने से वास्तविकता साबित नहीं होती,
साबित करना पड़ता है,

हाँ यह कह सकते हैं की रात् भी मृत्यु की तरह प्रतीत होती है,

रात का अँधेरा भी कितना भयानक होता है...

लेकिन धरती का अपनी धुरी पर घूमना,
और
क्रमशः रात का अँधेरा अधिक लगने लगता है,
लेकिन अँधेरा एक सीमा तक ही बढ़ता है..

क्योंकि उसे मालूम है कि
उसे घटना भी है,

और रात भर के चक्कर के बाद,
आखिर रात का अँधेरा कम हो ही जाता है,

लोग कहते हैं सूरज उग् आया,
सुबह हो गई, जो रोज होती है वही बात हो गई...

लेकिन सच कहूँ सूरज कभी नहीं उगता,

वो तो धरती के चक्कर में,
सूरज उगता हुआ प्रतीत होता है,

लेकिन याद रखिये प्रतीत होने से वास्तविकता साबित नहीं होती,
साबित करना पड़ता है...

हाँ यह जरूर कह सकते हैं कि सुबह,सूरज,ताप,शाम,रात,अँधेरायही जीवन के साथ होता है
शायद यही जीवन की वस्तविकता है...

खैर

चलो जो भी हो

भविष्य की वास्तविकता तुम पर छोड़ता हूँ...

अब घर चलना चाहिए....
क्योंकि अब शाम रात् हो गई
जो बात नहीं होनी थी वो बात हो गई..


 

धन्यवाद सत्ता का 

धन्यवाद जो इस जीवन के
सपनो को तोड़ दिया,
धन्यवाद पथ कठिन मिला तो
साथ, हाँथ भी छोड़ दिया l

धन्यवाद नफरत के बांध को
जगह-जगह से फोड़ दिया,
धन्यवाद विष निकला तो
विष पीने को छोड़ दिया l

धन्यवाद सुलगा के आग
लपटों में घर को जला दिया,
धन्यवाद मिला शोक साथ
और घर के प्रति भी भला किया l

धन्यवाद आलोचक का
जिसने संशोधन का मौका दिया,
धन्यवाद उसको भी जिसने
पग-पग में धोखा दिया|

धन्यवाद शुभचिंतक का
जो न्याय नहीं अन्याय किया,
धन्यवाद ईश्वर का
जिसने सदासहाय किया|

धन्यवाद सत्ता का जिसने
सरहद में लाकर खड़ा किया,
धन्यवाद उसका भी जिसने
पाल पोष कर बड़ा किया ...


गणित तो हम भी जानते हैं,


रिश्तों को जोड़ना-घटाना
गुणा करना प्रतिशत निकालना,
कितने सही-कितने गलत।

विज्ञान तो हम भी जानते हैं,
देह का मिटना अस्थि का घिसना
रक्त का बहना श्वांस का चलना
रहस्य खोज प्रयोग,
कितने सही-कितने गलत।

भूगोल तो हम भी जानते हैं
जीवन में चढ़ाव-उतार,
जलवायु दुःखों का पठार
समुद्र सरिता की धार
शरीर में भूकम्प,
कितने सही-कितने गलत।

इतिहास तो हम भी जानते हैं,
अतीत की बातें बीता हुआ कल
दिलीप की भूलें सत्ता का छल
सत्य-असत्य भ्रांतियां
कैसे हुई क्रांतियाँ, युद्व,
कितने सही-कितने गलत।





बोलो जिंदाबाद

कश्मीर, हिमाचल देखो या देखो पंजाब,
हरियाणा, उत्तराखंड, यूपी का नहीं जवाब,
राजस्थान, गुजरात, गोवा में बोलो कैसा अंतर?
आओ बच्चो तुम्हें सिखlएं देशभक्ति का मंतर,
मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा है आबाद
बोलो जिंदाबाद

अरुणाचल, असम, नागालैंड, सिक्किम सबकी शान
पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार का बोधि मान
एमपी, महाराष्ट्र, कर्नाटक केरल शिक्षावाद
बोलो जिंदाबाद

छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश की देखो शक्ति
तमिलनाडु, तेलंगाना सब में भारत की भक्ति,
सात केंद्र शासित भी हैं उनको भी कर लो याद
बोलो जिंदाबाद...





मैं चाहता हूं कलुष को


कला में बदल डालूँ,
प्रतिघात चाहे कितने हो
प्रणव में दखल डालूँ।

प्रकृति प्रकाश लाए
प्रगाढ़ अंधेरा दूर हो,
प्रचार ऐसा मैं करूं
प्रकृष्ट प्रजा मशहूर हो।

पट खुले,पग बड़े
पंछी हवा उड़े ,
परख लूं पापियों को
पथ में कदम बड़े ।

प्रणेता कौन है मेरा ?
जवाब देना चाहता हूं,
यहां के पापियों का
हिसाब देना चाहता हूं।

अधर्मी दुर्जनों को
परिज्ञान देना चाहता हूं,
दबे हुए इंसानों को
पहचान देना चाहता हूं।

स्वयं की चले तो
पापियों के जीत को
तिरस्कार में बदल डालूँ ,
मैं चाहता हूं स्वार्थ को
परोपकार में बदल डालूं।



प्रिय पिता प्रतिफल मिले


प्रतिबिंब दिखलाओ जरा ,
प्रतिनिधि हमारे आप हो
प्रीति सिखलाओ जरा l

प्रश्न जो अनसुलझे हैं
उन प्रश्नों को सुलझाओ जरा,
बंधुत्व क्या होता है ?
ये भी मुझे बतलाओ जरा l

ये दिन कभी क्या बीतेंगे?
जिनमें है केवल भ्रम भरा,
प्रारब्ध क्या होता है ?
ये भी मुझे बतलाओ जरा l

प्रहर्ष वर्ष बीतता
तो मैं भी रण को जीतता ,
प्रवाह मेरा ठहरा
प्रहार सुनके मीत का l

प्रदर्शन की प्रशंसा
प्रपंच केवल मैं हूँ ,
प्रबल यहाँ प्रबुद्ध है
प्रलाप केवल मैं हूँ l

प्रायश्चित उन्हें हो
जो पाप कर रहे हैं ,
भविष्य में मिलेगा क्या ?
जो आप कर रहें हैं l

प्राण तो प्रस्थान कर
प्रमाण छोड़ जाऊंगा,
विलाप करती सत्ता को
हर एक दिन पाउँगा l

जो सीखा हूँ मैं जग से
वही तो गीत गाऊंगा,
मैं हार के भी हाल से
हृदय से जीत जाऊंगा l

ये इतिशुभम नहीं है
ये श्री गणेश है ,
जर्जर हुआ तो क्या ?
अभी वक़्त शेष है l

प्रतिघात हो प्रतिकार हो
चाहे प्राण में प्रहार हो ,
प्रताप दिखलाएगी सत्ता
चाहे घोर अंधकार हो l

हर्ष हो धन जोड़ के
खरीदो आसमान को ,
प्रणाम कर रहा हूँ
करदो क्षमा नादान को...



मैं दीवानों का दीवाना

दीवाने मेरे दीवाने
मैं दीवानों का दीवाना,
था एक समय जब छोटा था
सिक्का ये खोटा - खोटा था
जब चमक उठा तो जग जाना
मैं दीवानों का दीवाना /

घर से निकला जब मन पिघला
मस्तिष्क कहा कुछ कर दिखला ,
अब ठान लिया जगवालो मैं
केवल सत्ता को है पाना,
मैं दीवानों का दीवाना /

पथ कठिन मगर अर्मान बड़े
कुछ देख रहे थे खड़े - खड़े
कुछ चर्चा थी कुछ था ताना ,
मैं दीवानों का दीवाना /

घर की छाया में काल कलह
है कोई लगती बड़ी वजह,
तुम कहो मिटादूँ क्षण भर में
कह दो केवल तुम आ जाना,
मैं दीवानों का दीवाना /

भय मुझे सताता कल तक था
हूँ आज दहकती ज्वाला,
सत्ता जी भर छू सकती है
जिसने मेरा जी जाना,
मैं दीवानों का दीवाना /

लो आज तुम्हें सर देता हूँ
रस अधरों में भर देता हूँ,
आलाम्बन करके मुझको
बनके बदली रस वार्षाना,
मैं दीवानों का दीवाना /

छोड़ो भय भ्रम की बातों को
मैं नहीं मानता नातों को,
मैं रिश्ता नहीं जो टूटूंगा
यह समझो मैं हूँ मस्ताना,
मैं दीवानों का दीवाना...



 तो एक बार मुझे याद कर लेना...

जब मेरी युवा-अवस्था बुढ़ापे में बदल जाए,
जब मेरे हाथ लाठी भी पकड़ने में असमर्थ हो जाएं,
कदम पूरी तरह से रुक जाएँ, मेरी आँखें तुम्हें देख न सकें,
मेरे कान तुम्हारी आवाज सुन न सकें,
मेरी जुबान कुछ कह न सके,
मेरा हृदय मृत्यु के कगार पर हो,
मेरा मन मृत्यु को गले लगाने के लिए ललक रहा हो,
मृत्यु के प्रहार से मेरा पूरा शरीर तड़प रहा हो और मृत्यु मेरा शिकार कर ले ,
जब मेरे चिंतक मुझे मरघट की धूल में मिलाने जाएँ,
लकड़ियों के ढेर में शरीर को जलाने जाएं,
अंतिम बार चेहरा देखकर शरीर में आग लगा दें,
कुछ पलों में शरीर जल के राख हो जाए,
मेरे जीवन के सपने ख़ाक हो जाएं,
जब हवाएं मेरे जले शरीर की राख़ उड़ाएं,
और वो राख़ तुम्हारे पास आए,
मेरा दर्द,जो कह न सका,
कर न सका वो करुण किस्सा सुनाए और तुम्हारे तन से लिपट जाए तो
एक बार मुझे याद कर लेना...




कुछ क्षण की जीवन गाथा,
लो टेक दिया हमने माथा।

जो मिला मुझे वो फूल नहीं
तकदीर थी कोई भूल नहीं,
कहने को कुछ और ही कहती
दुनियां का क्या आता-जाता ,
कुछ क्षण की जीवन गाथा,
लो टेक दिया हमने माथा।

जन्म -जन्म की बातें बांकी
जग ने बस औक़ातें आँकी,
क्षण-क्षण जाऊं मृत्यु तरफ
जिससे जीवन का सच्चा नाता,
कुछ क्षण की जीवन गाथा,
लो टेक दिया हमने माथा।


कुछ बातें बहुत जरूरी हैं
कुछ आधी हैं  कुछ पूरी हैं,
लेकिन किससे कब कैसे कहूँ,
सच किसको है आखिर भाता,
कुछ क्षण की जीवन गाथा,
लो टेक दिया हमने माथा।

आंसू अक्षर बने रहेंगे
दीवारों से व्यथा कहेंगे,
धूल धुंआ बन उड़ जाऊंगा
फिर क्यों फेकूँ पथ पर कांटा,
कुछ क्षण की जीवन गाथा,
लो टेक दिया हमने माथा।

ये अंत समय सबका आता
फिर मिले नहीं जो है जाता,
मिलता तो मैं भी मालिक,
जाने वाले को पुनः बुलाता
कुछ क्षण की जीवन गाथा,
लो टेक दिया हमने माथा।



विश्व हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं🇮🇳

राष्ट्रभाषा के गौरव की
हमने लिखी कहानी है, 
हिंदी हिंदुस्तान की 
विश्व मंच की रानी है।

आसेतु  हिमालय कश्मीर तक
 जन-जन की यह मानी है,
हो समृद्ध जगत गुण गाए 
हमने अब यह ठानी है।

 गांधी,नेहरू,टैगोर ने 
कहा था बात पुरानी है,
 अन्य भाषा है राज्य अगर तो
 हिंदी राजधानी है।

हिंदी के इतिहास में 
कविता भी स्वाभिमानी है, 
भारतवर्ष की संस्कृति की 
हिंदी धन्य निशानी है।

 भारत जब हिंदी में बोला 
अमेरिका,जापान से,
संयुक्त राष्ट्र में मंच मिला 
हिंदी को सम्मान से ।

श्रुति मधुर हिंदी भाषा है 
अमल करो अभिमान से,
 कैसे सीखूं मैं हिंदी ?
पूछेगा अमेरिका हिंदुस्तान से।

भारत की अभिव्यक्ति कर 
संस्कृति का सार सुनाया है,
स्वतंत्रता का दीप जलाकर
 हिंदी ने मान बढ़ाया है ।

गौरवमय  हिंदी की कहानी
 दुनिया सारी जानी है ,
धन-धन हिंदी भाषा
 धन्य धरा की वाणी है।

द्वारा - दिलीप मिश्रा
E-mail - lekhaksandesh@gmail.com
www.msmatpur.blogspot.com
Nojoto एप में भी आप मेरी कविताएं सुन सकते हैं, प्रोफ़ाइल में जाने के लिए यहाँ क्लिक करें



   यूट्यूब में👇









कोई टिप्पणी नहीं:

विधायक जी से मिलकर बच्चों को हुई बेहद ख़ुशी

🇮🇳।।विधायक जी से मिलकर छात्र/   छात्राओं को हुई बेहद ख़ुशी ।।🇮🇳 आज दिनांक 20/02/2018 को शासकीय माध्यमिक शाला मातपुर में खंडवा विधानसभ...

लोकप्रिय पोस्ट